महाभारत का युद्ध खत्म हो गया था। युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर की राजगादी संभाल ली थी। सब कुछ सामान्य हो रहा था। एक दिन वो घड़ी भी आई जो कोई पांडव नहीं चाहता था। भगवान कृष्ण द्वारिका लौट रहे थे। सारे पांडव दु:खी थे। कृष्ण उन्हें अपना शरीर का हिस्सा ही लगते थे, जिसके अलग होने के भाव से ही वे कांप जाते थे। लेकिन कृष्ण को तो जान ही था।
पांचों भाई और उनका परिवार कृष्ण को नगर की सीमा तक विदा करने आया। सब की आंखों में आंसू थे। कोई भी कृष्ण को जाने नहीं देना चाहता था। भगवान भी एक-एक कर अपने सभी स्नेहीजनों से मिल रहे थे। सबसे मिलकर उन्हें कुछ ना कुछ उपहार देकर कृष्ण ने विदा ली। अंत में वे पांडवों की माता और अपनी बुआ कुंती से मिले।
भगवान ने कुंती से कहा कि बुआ आपने आज तक अपने लिए मुझसे कुछ नहीं मांगा। आज कुछ मांग लीजिए। मैं आपको कुछ देना चाहता हूं। कुंती की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने रोते हुए कहा कि हे कृष्ण अगर कुछ देना ही चाहते हो तो मुझे दु:ख दे दो। मैं बहुत सारा दु:ख चाहती हूं। कृष्ण आश्चर्य में पड़ गए।
कृष्ण ने पूछा कि ऐसा क्यों बुआ, तुम्हें दु:ख ही क्यों चाहिए। कुंती ने जवाब दिया कि जब जीवन में दु:ख रहता है तो तुम्हारा स्मरण भी रहता है। हर घड़ी तुम याद आते हो। सुख में तो यदा-कदा ही तुम्हारी याद आती है। तुम याद आओगे तो में तुम्हारी पूजा और प्रार्थना भी कर सकूंगी।
प्रसंग छोटा सा है लेकिन इसके पीछे संदेश बहुत गहरा है। अक्सर हम भगवान को सिर्फ दु:ख और परेशानी में ही याद करते हैं। जैसे ही परिस्थितियां हमारे अनुकूल होती हैं, हम भगवान को भूला देते हैं। जीवन में अगर प्रेम का संचार करना है तो उसमें प्रार्थना की उपस्थिति अनिवार्य है। प्रेम में प्रार्थना का भाव शामिल हो जाए तो वह प्रेम अखंड और अजर हो जाता है।
हम प्रेम के किसी भी रिश्ते में बंधे हों, वहां परमात्मा की प्रार्थना के बिना भावनाओं में प्रभाव उत्पन्न करना संभव नहीं है। इसलिए परमात्मा की प्रार्थना और अपने भीतरी प्रेम को एक कीजिए। जब दोनों एक हो जाएंगे तो हर रिश्ते में प्रेम की मधुर महक को आप महसूस कर सकेंगे।
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